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Wednesday, February 13, 2019

भावना का उच्चतम शिखर है प्रेम, ऐसे मनाए यह वैलेंटाइन डे

भावना का उच्चतम शिखर है प्रेम, ऐसे मनाए यह वैलेंटाइन
 Feb 14, 2019


 
इस समूची सृष्टि में एक बहुचर्चित शब्द है, जिसे हम प्रेम कहते हैं। यह शब्द विश्व के समस्त धर्म ग्रंथों में विश्व के समस्त साहित्य में, विश्व की सभी भाषाओं में देखने को मिलता है। विभिन्न शायरों, साहित्यकारों, अध्यात्मविदों व विद्वानों ने विभिन्न रूपों में इस शब्द की व्याख्या की है पर आज तक इस शब्द को किसी परिभाषा की सीमा में नहीं बांधा जा सका। वैसे ही ईश्वर को किसी परिभाषा की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। प्रेम की कोई सीमा है ही नहीं। क्योंकि यह असीम है, अनंत है। कबीर का एक बहुत ही सुंदर दोहा है- पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम, पढ़े सो पंडित होय। अर्थात् जगत के बहुत से लोग पोथी पढ़-पढ़कर मर गए पर कोई सर्वज्ञानी नहीं बन सका। बस प्रेम ही वह भाषा है कि जो इसे पढ़ ले, वह पंडित हो जाता है।

वास्तव में संत कबीर का कहना है कि जिसने इस ढाई अक्षर के प्रेम को जान लिया तो मानो उसने सब कुछ जान लिया। उसके लिए कुछ और जानना शेष न रहा। जिसने प्रेम को चख लिया, जिसने प्रेम रस पी लिया, उसकी प्यास सदा के लिए बुझ गई। जो प्रेम में डूब गया, उसने सचमुच ज्ञान को पा लिया। कबीर के लिए प्रेम ही ज्ञान है और प्रेमी ही ज्ञानी है और जिसे प्रेम नहीं है, वही अज्ञानी है।

सचमुच प्रेम शब्द में एक अनुपम मिठास है। इसमें असीम सौंदर्य है। एक अनोखी महक है। तभी इसे बोलने और सुनने मात्र से ही हमारे प्राणों में एक अजीब-सी सिहरन होने लगती है। प्राणों में नूतन स्पंदन होने लगता है। इसीलिए जो सचमुच प्रेम में होता है, वह ज्ञान मय होता है। सौंदर्य मय होता है और सदा आनंद में रहता है। प्रेम में डूबते ही वह मुक्त हो जाता है। प्रेम का यह सौंदर्य आकर्षण, आनंद, स्पंदन और महक ही है,जिससे यह हमें अपनी ओर आकर्षित करता है। प्रेम का यह शाश्वत सौंदर्य वह आनंद ही है, जिसके लिए मीरा ने हंसते-हंसते जहर पी लिया। जिसके लिए बुद्ध, महावीर, राजपाट छोड़ गए। जिसके लिए गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने पुत्रों की बलि दे दी। जिसके लिए राम ने शबरी के जूठे बेर खा लिए। जिसके लिए गोपियां कृष्ण की हो गईं और जिसके लिए भक्त और भगवान भी एक-दूजे के हो गए।

प्रेम एक परम पावन भावना है। प्रेम हमेशा भावना के उच्चतम शिखर पर ही होता है। यह कभी वासना का रूप ले ही नहीं सकता। इसीलिए श्रीमां कहती हैं, मैं नहीं चाहती कि प्रेम शब्द का कामवासना के लिए प्रयोग करके उसे दूषित किया जाए। क्योंकि काम वासना तो मनुष्य को पशु से विरासत में मिली है पर प्रेम मनुष्य को परमेश्वर से विरासत में मिला है। प्रेम लैंगिक या प्राणिक आकर्षण और आदान-प्रदान नहीं है। प्रेम स्नेह के लिए हृदय की भूख नहीं है। प्रेम एकमेव से आया शक्तिशाली स्पंदन है और केवल बहुत शुद्ध और बहुत मजबूत व्यक्ति ही उसे पाने और अभिव्यक्त करने के योग्य होते हैं।

सच्चा प्रेम वह भागवत शक्ति है, जो चेतना को भगवान के साथ एक होने के लिए प्रेरित करती है। गायत्री परिवार के जनक युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने मानव मात्र में उसी भागवत प्रेम के अवतरण को मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण कहा है। प्रेम ही है, जो अपना आत्मोत्कर्ष कर अपनी संपूर्ण अभिव्यक्ति कर पाता है। करुणा, प्रेम व संवेदना से अभिपूरित व्यक्ति ही देवत्व को धारण करता है। इस 14 फरवरी को जब हम वैलेंडाइन डे मनाने का क्रम करें तो उसे वासना नहीं वरन् सच्चे प्रेम में अभिव्यक्त करें। सच्चा प्रेम अपनी तीव्रता में बहुत गंभीर और अचंचल है। यह भी हो सकता है कि वह किन्हीं भी बाहरी संवेदनात्मक और स्नेहपूर्ण क्रियाओं में अभिव्यक्त न हो। सच्चा प्रेम अथवा भगवत प्रेम अपना आनंद और संतोष स्वयं में ही पा लेता है। उसे ग्रहण किए जाने या प्रशंसा पाने या उसमें हिस्सा बंटाए जाने की कोई आवश्यकता नहीं। वह तो प्रेम के लिए प्रेम करता है। वैसे ही जैसे फूल खिलता है।

डॉ. प्रणव पण्ड्या/शांतिकुंज, हरिद्वार

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