मुजफ्फरपुर न्यूज़ डेस्क
15 नवम्बर 2018, 23:22 pm IST
अनुराग श्रीवास्तव
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ज़िन्दगी क्या है एक कहानी की किताब, जिसे आप जितना पलटो उसके हर पन्ने में कोई न कोई किस्से कहानी पढ़ने को जरूर मिल जाती है। ऐसा ही एक किस्सा है सामा चकेवा की। सामा चकेवा बिहार में मैथिली भाषी लोगों का यह एक प्रसिद्ध त्यौहार है। जिस तरह भारत में रक्षाबंधन और भाई दूज भाई बहन के रिश्ते को दर्शाता है ठीक उसी तरह भाई – बहन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध को दर्शाने वाला सामा चकेवा का यह त्यौहार नवम्बर माह के शुरू होने के साथ मनाया जाता है। यह आमतौर पर छठ पर्व के समाप्त होने के बाद मनाया जाता है जो कार्तिक पूर्णिमा के बाद समाप्त हो जाता है। इसका वर्णन हमे हमारे पुराणों में भी मिलता है। कहते हैं की सामा भगवान श्री कृष्ण की पुत्री थी जिनपर अवैध सम्बन्ध रखने का गलत आरोप लगाया गया था, जिसके कारण सामा के पिता श्री कृष्ण ने गुस्से में आकर अपनी ही पुत्री को मनुष्य से पक्षी बन जाने की सजा दे दी। लेकिन अपने भाई चकेवा के प्रेम और त्याग के कारण वह पुनः पक्षी से मनुष्य के रूप में आ गयी |
क्या होता है इस पर्व में ?
शाम होने पर युवा महिलायें अपनी संगी सहेलियों की टोली में मैथिली लोकगीत गाती हुईं अपने-अपने घरों से बाहर निकलती हैं। उनके हाथों में बाँस की बनी हुई टोकड़ियाँ रहती हैं| टोकड़ियों में मिट्टी से बनी हुई सामा-चकेवा की मूर्तियाँ , पक्षियों की मूर्तियाँ एवं चुगिला की मूर्तियाँ रखी जाती है। मैथिली भाषा में जो चुगलखोरी करता है उसे चुगिला कहा जाता है। मिथिला में लोगों का मानना है कि चुगिला ने ही श्री कृष्ण से सामा के बारे में चुगलखोरी की थी | सामा खेलते समय महिलायें मैथिली लोक गीत गा कर आपस में हंसी – मजाक भी करती हैं | भाभी ननद से और ननद भाभी से लोकगीत की ही भाषा में ही मजाक करती हैं | अंत में चुगलखोर चुगिला का मुंह जलाया जाता है और सभी महिलायें पुनः लोकगीत गाती हुई अपने – अपने घर वापस आ जाती हैं |ऐसा आठ दिनों तक चलता रहता है | यह सामा-चकेवा का उत्सव मिथिलांचल में भाई -बहन का जो सम्बन्ध है उसे दर्शाता है | यह उत्सव यह भी इंगित करता है कि सर्द दिनों में हिमालय से रंग – बिरंग के पक्षियाँ मिथिलांचल के मैदानी भागों में आ जाते हैं |
बदलते समय के साथ आया है बदलाव
पहले महिलायें अपने हाथ से ही मिट्टी की सामा – चकेवा बनाती थीं | विभिन्न रंगों से उसे सवांरती थी | लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता है | अब बाजार में रंग – बिरंग के रेडीमेड मिट्टी से बनी हुई सामा – चकेवा की मूर्तियाँ उपलब्ध हैं | महिलायें इसे ही खरीदकर अपने घर ले आती हैं | लेकिन अब मिथिला की इस संस्कृति पर , ऐसी लोकगीतों पर , ऐसी लोकनृत्यों पर लोगों की आधुनिक जीवनशैली के द्वारा , एकल परिवार में बृद्धि के द्वारा एक प्रकार से चोट पहुंचाया जाने लगा है तथा रोजगार के कारण लोगों के अन्यत्र रहने से अब महिलायें सामा-चकेवा का उत्सव नहीं मनाती हैं |कहीं – कहीं हम सामा-चकेवा के अवसर पर गांवों की सड़कों पर , शहरों की गलियों में सामा – चकेवा के गीत सुनते हैं | अब यह उत्सव साधारण नहीं रहा |
आठ दिनों तक मनाया जाता है
सामा- चकेवा का उत्सव पारंपरिक लोकगीतों से जुड़ा है | यह उत्सव मिथिला के प्रसिद्ध संस्कृति और कला का एक अंग है जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त सभी बाधाओं को तोड़ता है | यह उत्सव कार्तिक शुक्ल पक्ष से सात दिन बाद शुरू होता है | आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है , और नौवे दिन बहने अपने भाइयों को धान की नयी फसल की
चुरा एवं दही खिला कर सामा- चकेवा के मूर्तियों को तालाबों में विसर्जित कर देते हैं। गाँवों में तो इसे जोते हुए खेतों में विसर्जित किया जाता है।
क्या है कहानी इस पर्व की
सामा-चकेवा के उत्सव का सम्बन्ध सामा की दुःख भरी कहानी से है। सामा कृष्ण की पुत्री थी | जिसका वर्णन पुराणों में भी किया गया है | कहानी यह है कि एक दुष्ट चरित्र वाले व्यक्ति ने एक योजना रची | उसने सामा पर गलत आरोप लगाया कि उसका अवैध सम्बन्ध एक तपस्वी से है | उसने कृष्ण से यह बात कह दिया | कृष्ण को अपनी पुत्री सामा के प्रति बहुत ही गुस्सा हुआ | क्रोध में आकर उसने सामा को पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया | सामा अब मनुष्य से पक्षी बन गयी।
जब सामा के भाई चकेवा को इस प्रकरण की पूरी जानकारी हुई तो उसे अपनी बहन सामा के प्रति सहानुभूति हुई | अपनी बहन को पक्षी से मनुष्य रूप में लाने के लिए चकेवा ने तपस्या करना शुरू कर दिया | तपस्या सफल हुआ | सामा पक्षी रूप से पुनः मनुष्य के रूप में आ गयी |अपने भाई की स्नेह और त्याग देख कर सामा द्रवित हो गयी |वह अपने भाई की कलाई में एक मजबूत धागा राखी के रूप में बाँध दी |उसी के याद में आज बहनें अपनी भाइयों की कलाई में प्रति वर्ष बांधती आ रही हैं |
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